राजनीति में भी राजनीति एक स्वभाव बन गया है। अब तो एक शब्द पर भी राजनीतिक कटाक्ष चल पड़ी है। एक शब्द जो अपने आप में सामर्थ और सम्मान का बोध कराता है भी अब नागवार जैसे हुआ है। इतना कुछ कह देने और हाल में एक शब्द पर मची शब्द युद्ध की कर्कश आवाज आपके भी कान ने महसूस और आंखों को कुछ दिनों से ज्यादा ही वास्ता हुआ ही होगा। तो आप समझ भी रहे होंगे हम किस एक शब्द की चर्चा यहाँ कर रहे। अब ये आत्मनिर्भर शब्द ही तो है न कोई शब्दभेदी तो नहीं न है। ये कोई आज इजात तो नहीं हुआ। हां ये शब्द एक राजनीतिक मंच से ही न आया। हमें तो खुद में शब्द की भाव रूप में भी सामर्थ का बोध दिखता है। पर ऐसा क्या आज हो गया इस भाव अब नहीं भाने लगा भी है। पर, राजनीतिक नजर से ही वरना इससे कौन अछूता रहना चाहेगा। आप ही सोचो फिर क्या हो गया अब खुद की आत्मनिर्भरता पर इतराने से। आत्मसम्मान किसको नहीं भाता भी है। आत्मसुरक्षा और आत्मरक्षा की अभी तो दूसरों के बजाय खुद से ही सबको निहायत वास्ता पड़ी है। आत्मनिर्भर होने के लिए ही तो जिंदगी में भागदौड़ है। खुद भी चाहत होती है। अब जब आज खुद को मजबूत खुद की परिस्थिति और स्थिति भी है तो इस ओर अपने आप को मजबूत करने की सोच तो रखनी भी होगी। कम से कम परिस्थितियों से लड़ने में खुद सक्षम होने में गुरेज क्या है। एक रोजी की ही सवाल न है। कुछ तो एक दूसरे पर निर्भरता भी तो चाहिए न। फिर हर्ज क्या है बोलने, सोचने और चलने में।
भाव: एक सामर्थ
रविवार, 31 मई 2020
एक शब्द भी बन जाती राजनीति
शनिवार, 30 मई 2020
ख़बर से ख़बर तक: बेबसी या बेकरारी
ख़बर से ख़बर तक: ख़बर से ख़बर तक में बेबाक़ रहें
ख़बर से ख़बर तक में बेबाक़ रहें
मेरे ब्लॉग अब एक अलग अंदाज में। ख़बर से ख़बर तक के रूप में बेबाक़ बात के साथ। बेबाक़ बात आपकी राय के साथ जहां ख़बर के अंदर की सीधी बात।
बेबसी या बेकरारी
मुसाफिरों की राहें तब बदल जाती जब आगे रास्ते खत्म हो फिर उस रास्ते चलना खुद के बस का न हो। हां इस दो उलझन के बीच परिस्थितियां कुछ भी करा देती है। तब या तो बेबसी होती है या फिर बेकरारी। मुद्दे पर आएं पहले कह देते हैं बातें खरी-खरी करेंगे। बात रोजी और रोटी से है। वास्तविक भी है इससे आगे और क्या हो सकती है जिंदगी के लिए। जब रोजी नहीं रहेगी तो पेट कैसे भड़ेगा। हां ये उनके लिए जरुर है जो सुबह की काम पर रात की पेट की आग बुझाने की जद्दोजहद में हर दिन घर से उम्मीद से निकलते हैं। कुछ वे भी जो अल्प मासिक या यूं कहें अपने साधन से किसी तरह परिवार को दो वक्त की रोटी दे पाते हैं। अगर एक दिन रोजी न मिले तो फिर अगले दिन की चिंता के मारे रात में नींद भी कहां आती होगी। ये लम्बा खिंच चले तो फिर कितनी हिम्मत रह पाएगी कुछ सोचने समझने की। शायद आज ये ही परिस्थिति खासकर प्रवासी मजदूरों की बनी है। काम की खातिर प्रदेशों का शरण लेने घर वार छोड़े। आज वो ही एक पेट पालने के लिए तैयार नहीं। प्रदेश में कुछ दिन की खुद की पेट भरने की भी जुगत नहीं रह पा रही तो फिर सोचिए। पेट की आग के आगे लम्बा राह जो कभी पैदल पॉव की हिम्मत नहीं जो एक कदम बढ़े आज गांव की ओर बढ़ने से तपती राह की अगन भी डिगा नहीं रही। सफर पर भीड़ का हिस्सा बन जिंदगी की परवाह किये सड़क हो लौट रहे। अब तो रोज कई कई ट्रेनें आ रही है। फिर क्यों थोड़ा इंतजार नहीं हो रहा इस उपलब्ध अपने सफर के लिए। क्यों एक खुले छत के वाहनों में भीड़ बनकर जिंदगी को भारी कर रहे। तनिक भी नहीं सोच पाते। इतनी जिंदगी बेबस हो गई आज। खुद के अच्छे की भी नहीं समझ पा रहे। आ तो गए अपने देश अब क्या। आते ही रोजी की जुगाड़ तो नहीं हो गया। कल भी वही थी आज भी। अपने और परिवार की भी तो चिंता कर सकते न। हद तक हालात एक जैसी है। कोई मजबूर तो कोई बेबस। एक पेट की खातिर न ही। जो हालात है एक कोई के भरोसे निपटना भी नहीं जाएगा। सब को कुछ न कुछ सहन करनी हो रही। खुद में भी हम सभी को समझने और सम्भलने है। धैर्य भी तो है न।
-कोरोना इफेक्ट