राजनीति में भी राजनीति एक स्वभाव बन गया है। अब तो एक शब्द पर भी राजनीतिक कटाक्ष चल पड़ी है। एक शब्द जो अपने आप में सामर्थ और सम्मान का बोध कराता है भी अब नागवार जैसे हुआ है। इतना कुछ कह देने और हाल में एक शब्द पर मची शब्द युद्ध की कर्कश आवाज आपके भी कान ने महसूस और आंखों को कुछ दिनों से ज्यादा ही वास्ता हुआ ही होगा। तो आप समझ भी रहे होंगे हम किस एक शब्द की चर्चा यहाँ कर रहे। अब ये आत्मनिर्भर शब्द ही तो है न कोई शब्दभेदी तो नहीं न है। ये कोई आज इजात तो नहीं हुआ। हां ये शब्द एक राजनीतिक मंच से ही न आया। हमें तो खुद में शब्द की भाव रूप में भी सामर्थ का बोध दिखता है। पर ऐसा क्या आज हो गया इस भाव अब नहीं भाने लगा भी है। पर, राजनीतिक नजर से ही वरना इससे कौन अछूता रहना चाहेगा। आप ही सोचो फिर क्या हो गया अब खुद की आत्मनिर्भरता पर इतराने से। आत्मसम्मान किसको नहीं भाता भी है। आत्मसुरक्षा और आत्मरक्षा की अभी तो दूसरों के बजाय खुद से ही सबको निहायत वास्ता पड़ी है। आत्मनिर्भर होने के लिए ही तो जिंदगी में भागदौड़ है। खुद भी चाहत होती है। अब जब आज खुद को मजबूत खुद की परिस्थिति और स्थिति भी है तो इस ओर अपने आप को मजबूत करने की सोच तो रखनी भी होगी। कम से कम परिस्थितियों से लड़ने में खुद सक्षम होने में गुरेज क्या है। एक रोजी की ही सवाल न है। कुछ तो एक दूसरे पर निर्भरता भी तो चाहिए न। फिर हर्ज क्या है बोलने, सोचने और चलने में।
भाव: एक सामर्थ
रविवार, 31 मई 2020
एक शब्द भी बन जाती राजनीति
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