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शनिवार, 30 मई 2020

बेबसी या बेकरारी

  मुसाफिरों की राहें तब बदल जाती जब  आगे रास्ते खत्म हो फिर उस रास्ते चलना खुद के बस का न हो। हां इस दो उलझन के बीच परिस्थितियां कुछ भी करा देती है। तब या तो बेबसी होती है या फिर बेकरारी। मुद्दे पर आएं पहले कह देते हैं बातें खरी-खरी करेंगे। बात रोजी और रोटी से है। वास्तविक भी है इससे आगे और क्या हो सकती है जिंदगी के लिए। जब रोजी नहीं रहेगी तो पेट कैसे भड़ेगा। हां ये उनके लिए जरुर है जो सुबह की काम पर रात की पेट की आग बुझाने की जद्दोजहद में हर दिन घर से उम्मीद से निकलते हैं। कुछ वे भी जो अल्प मासिक या यूं कहें अपने साधन से किसी तरह परिवार को दो वक्त की रोटी दे पाते हैं। अगर एक दिन रोजी न मिले तो फिर अगले दिन की चिंता के मारे रात में नींद भी कहां आती होगी। ये लम्बा खिंच चले तो फिर कितनी हिम्मत रह पाएगी कुछ सोचने समझने की। शायद आज ये ही परिस्थिति खासकर प्रवासी मजदूरों की बनी है। काम की खातिर प्रदेशों का शरण लेने घर वार छोड़े। आज वो ही एक पेट पालने के लिए तैयार नहीं। प्रदेश में कुछ दिन की खुद की पेट भरने की भी जुगत नहीं रह पा रही तो फिर सोचिए। पेट की आग के आगे लम्बा राह जो कभी पैदल पॉव की हिम्मत नहीं जो एक कदम बढ़े आज गांव की ओर बढ़ने से तपती राह की अगन भी डिगा नहीं रही। सफर पर भीड़ का हिस्सा बन जिंदगी की परवाह किये सड़क हो लौट रहे। अब तो रोज कई कई ट्रेनें आ रही है। फिर क्यों थोड़ा इंतजार नहीं हो रहा इस उपलब्ध अपने सफर के लिए। क्यों एक खुले छत के वाहनों में भीड़ बनकर जिंदगी को भारी कर रहे। तनिक भी नहीं सोच पाते। इतनी जिंदगी बेबस हो गई आज। खुद के अच्छे की भी नहीं समझ पा रहे। आ तो गए अपने देश अब क्या। आते ही रोजी की जुगाड़ तो नहीं हो गया। कल भी वही थी आज भी। अपने और परिवार की भी तो चिंता कर सकते न। हद तक हालात एक जैसी है। कोई मजबूर तो कोई बेबस। एक पेट की खातिर न ही। जो हालात है एक कोई के भरोसे निपटना भी नहीं जाएगा। सब को कुछ न कुछ सहन करनी हो रही। खुद में भी हम सभी को समझने और सम्भलने है। धैर्य भी तो है न।
         -कोरोना इफेक्ट
     

1 टिप्पणी:

The Rajeev Blog ने कहा…

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